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03 Let's go in the Light(Hindi)

प्रकाश में विलीन हो चले

उद्बोधक कहानी


रैदास ने बचपन से ही अपनी विलक्षणता के गुण प्रकट कर दिये थे। माघ की पूर्णिमा का पूर्ण चन्द्र उस दिन अपने ही सौन्दर्य पर इठला रहा था। काशी के समीप के गाँव में एक घर हास-परिहास और मधुर संगीत के स्वरों से गूंज रहा था। सारा गाँव | एकत्रित था। अवसर ही इतना मङ्गलमय था, गृहस्वामिनी को पुत्र-लाभ हुआ था। कैसा तेजस्वी मुखमण्डल! पर कुछ ही देर में सबके चेहरे चिन्तित लगने लगे, उस नन्हें शिशु ने दुग्धपान न करने की हठ जो कर ली थी। सभी के सारे प्रयल विफल हो गये। गृहस्वामी को कुछ सूझता न था। तभी भगवद्प्रेरणा से स्वामी रामानन्द उधर आ निकले। अन्ततः जब उन्होंने बालक को उपदेश दिया, तभी उसने दुग्धपान किया।



बालक थे रैदास । जन्म लिया निम्नतम जाति में-एक चमार के घर। किशोरावस्था से ही पिता ने चर्म के पैतृक व्यापार में लगा दिया तो उसी में लग गये, पर जिह्वा तो राम की ही हो गयी थी! स्वाभाव ऐसा अलमस्त पाया था कि दिनभर जो द्रव हाथ में आता, साधु-सन्तों में, हरि-प्रेमियों में खुले हृदय से | लुटा देते। पिता को धन का ऐसा अपव्यय सहन न हुआ। बहुत चेतावनियाँ दीं परन्तु जब रैदास ने नहीं सुना तो पिता ने उनको पत्नी सहित घर से निकाल कर पिछवाड़े की झोपड़ी में डाल दिया।


परन्तु रैदास तनिक भी विचलित न हुए। दिन-भर पिता के क्रोध से भी छुटकारा मिल गया। हरि-प्रेम में डूबे दिन-भर जूते बनाते और उसी से जीविकोपार्जन करते।


उनकी फाका मस्ती का हाल यह कि ऐसे घोर अभावों में दिन कट रहे। थे, परन्तु हरि का भक्त जो द्वार पर आता उसे बिना दाम लिए ही जूते दे देते! संसार की माया उन्हें कभी पकड़ न पायी। धन की कभी कामना न की, अपने में पूर्ण तृप्त, पूर्ण आत्मसन्तोष का सादा जीवन था उनका। अन्तर की मस्ती के आगे उन्हें कुछ सूझता ही न था। दरिद्रता का दुःख बहुत था पर सदा भगवन्त की ध्यान-धुन में मग्न रहते थे :


मैं अपनो मन हरि से जोरयो।

हरि से जोरि सबन से तोरयो;

सब ही पहर तुम्हारी आसा।

मन, क्रम, बचन कहै रैदासा ॥


उनकी निर्धनता देख कर भगवान स्वयं उनकी सहायता को साधु-वेष में उनके घर आये। कहा, "रैदास मेरे पास यह पारस पत्थर है। इसे तुम ले लो और अपने अभाव दूर कर लो।” रैदास जूता बनाने में लगे थे, बोले, “मुझे पारस की कोई आवश्यकता नहीं है।” साधु ने विश्वास दिलाने के लिए उनके एक औज़ार को पारस से छू कर सोना बना कर भी दिखाया। रैदास ने सोचा, “लो मेरा औज़ार भी गया।” परन्तु जब साधु बिना पारस दिये जाने को ही न माने तो रैदास ने कह किया, “ठीक है महाराज, उस पत्थर को छप्पर में खोंस दो।” साधु पारस को छप्पर में फँसा कर चले गये।


कुछ काल बाद वे पुनः लौटे पर यह देख कर आश्चर्य में रह गये कि रैदास उसी स्थिति में बैठे जूते बना रहे थे। उन्होंने पूछा, “रैदास, मेरा पारस कहाँ है?” रैदास ने कह दिया, “जहाँ आप रख गये थे वहीं होगा।” रैदास का जीवन-स्तर सुधारने की अपनी यह योजना विफल जाते देख कर भगवान ने एक और युक्ति निकाली। अगले दिन रैदास ने जब पूजा करके अपना आसन हटाया तो उन्हें पाँच स्वर्ण मुद्राएँ रखी मिलीं। रैदास को धन एकत्र करना या जगत की माया में फँसना बिलकुल स्वीकार न था। परन्तु उस रात स्वप्न में हरि ने रैदास को दर्शन दिये और कहा, “मेरे प्रसाद का तिरस्कार न करो। इसे स्वीकार करो।” रैदास ने तब इस धन से एक मन्दिर और एक धर्मशाला बनवायी।


एक शूद्र हो कर ब्राह्मण जैसा कर्म-रैदास की यह धृष्टता ब्राह्मण तनिक भी न सहन कर सके। उनकी इस ईष्र्या को देख कर रैदास तो बस यही कहते,


रैदास राति न सोइये, दिवस न करिए स्वद;

अहर निस हरिजी सुमरिये, छाँडि सकल प्रतिवाद ॥


ब्राह्मणों का क्रोध इतना बढ़ गया कि उन्होंने काशी नरेश के दरबार में जा कर प्रार्थना की कि शूद्र को भगवान के विषय में उपदेश देने से रोकना चाहिए। रैदास की पात्रता की कसौटी की जाँच के लिए राजा ने यह आदेश दिया कि दोनों पक्ष राजदरबार में एक साथ उपस्थित हों। रैदास तो नाम की मस्ती में मग्न रहते थे। राजा का आदेश मिला तो चल दिये राजदरबार की ओर। पहुँच कर देखा कि समस्त ब्राह्मणगण वहाँ एकत्र थे। मध्य में एक सौन्दर्ययुक्त सिंहासन पर नारायण की मूर्ति सुशोभित थी। राजा ने घोषणा की कि जिसके आह्वान पर मूर्ति स्वयं उठ कर उसके पास पहुँच जायेगी, वही पक्ष विजयी घोषित किया जायेगा। सर्वप्रथम सभी ब्राह्मणों के वेद मन्त्रोच्चारण का घोष दरबार में गूंजने लगा। एक से बढ़ कर एक विद्वान, एक से एक पण्डित -अपने पाण्डित्य और विद्वत्ता को दिखाने के प्रयास में उनके कण्ठ सूख गये, पर मूर्ति तो टस से मस न हुई। फिर रैदास ने प्रेम में डूबे हृदय से भगवान को पुकारा और उनके हृदय की करुण पुकार सुन, वह मूर्ति स्वयं चल कर रैदास की गोद में आ बैठी! रैदास के नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी और अधरों पर थरथरा रहा था राम का नाम -


ऐसी लाज तुज बिन कौन करे,

दीनदयाल गुसइयाँ मेरे माथे छत्र धरे॥


राम नाम की मस्ती में डूबे रहने के अतिरिक्त रैदास की कोई आकांक्षा नहीं थी, कोई चाह नहीं थी। ऐसी सरल भक्ति कि उसमें कर्मकाण्डों का भी बन्धन नहीं था। चमड़े का आसन, चमड़े का कमण्डलु और चमड़े के थैले में शालिग्राम की मूर्ति-यह थी उनकी पूजा की सामग्री। न कोई दिखावा, न कोई ढोंग -हरि के साथ ऐसा अटूट नाता था, रैदास का। सन्त रैदास के मान की ख्याति सुन वहाँ का राजा भी उनका आशीर्वाद लेने की इच्छा से द्वार पर आया। रैदास ने चमड़े के पात्र में पूजा का जल भर कर चरणामृत राजा को पीने को दे दिया। उस पात्र का जल राजा से पिया नहीं गया। उसने पीने का बहाना करते हुए सारा पानी अपने कुर्ते की बाँह पर गिरा दिया। रैदास की पैनी दृष्टि से यह बात छिप न सकी परन्तु उन्होंने राजा से कुछ न कहा। घर जा कर राजा ने अपने वस्त्र धोबी को दे दिये। धोबी की बेटी ध्यान की शक्ति को पहचानती थी। वह कुर्ता हाथ में लेते ही शक्ति के स्पन्दन उसके शरीर में दौड़ गये। उसने कुर्ते की बाँह का सारा पानी चस लिया। वह चरणामृत पीते ही वह गहरे ध्यान में चली गयी।


उसकी आध्यात्मिक उन्नति अत्यन्त तीव्रता से होने लगी। आसपास उसकी प्रसिद्धि फैल गयी। वह राजा दीक्षा की खोज में उसके पास आया। उस लड़की ने कहा, “राजन, आपके ही कुर्ते पर गिरे चरणामृत को पीने से मेरी अन्तरशक्ति जाग्रत हो गयी और मैंने आत्मा के आनन्द की मस्ती को पाया। आप उन्हीं सन्त के पास जाइए।” राजा के मन में भी ईश्वर को जानने की सच्ची लगन थी। पुनः जा कर वह रैदास के चरणों में गिर पड़ा। रैदास ने उस पर अपनी कृपा-दृष्टि डाली और उसे दीक्षा दी।


निम्नतम कुल में उत्पन्न रैदास ने अपनी भक्ति से उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त किया। परन्तु उच्च कुल में जन्मे पण्डितों, को रैदास की यह आध्यात्मिक प्रगति फूटी आँख नहीं सुहाती थी। एक बार, चित्तौड़ की झाली रानी के निमन्त्रण पर रैदास उनके घर गये। रानी ने अपने गुरु के सम्मान में भारी भोज का आयोजन किया। परन्तु सभी ब्राह्मणों ने रैदास के साथ भोजन करने से इन्कार कर दिया। अन्त में रानी ने सभी ब्राह्मणों को अन्न इत्यादि दान दिया और उनसे अपनी रसोई स्वयं बनाने का अनुरोध किया। अपने द्वारा पकाया हुआ भोजन खाने के लिए जब सभी ब्राह्मण अपने आसन पर बैठे तो यह देख कर हैरान रह गये कि हरेक के बीच में एक-एक रैदास बैठे हुए भोजन कर रहे हैं। ब्राह्मणों को किंकर्तव्यविमूढ़ देख, रैदास ने उनके जाति-भ्रम को तोड़ने के लिए, अपनी त्वचा को चीर, अन्दर एक सुवर्ण यज्ञोपवीत के दर्शन कराये। यज्ञोपवीत की स्वर्णिम आभा की अभूतपूर्व चकाचौंध से सभी के नेत्र बन्द हो गये! जब उन्होंने आँखे खोली तो देखा कि रैदास, उसी स्वर्णिम प्रकाश में सदेह ब्रह्मलीन हो गये। थे। छोड़ गये थे, केवल अपने दो सुनहरे पद-चिह्न! उनके प्रेम की चरम परिणति हुई, भगवान के साथ उनके पूर्ण विलय में।

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